अजीत पवार–IPS विवाद: सोलापुर कॉल पर सियासत गरम, कार्रवाई की मांग तेज
दो मिनट का एक वीडियो, एक फोन कॉल और पूरे महाराष्ट्र की सियासत तमतमा गई। सोशल मीडिया पर वायरल क्लिप में उपमुख्यमंत्री अजीत पवार और सोलापुर जिले की महिला आईपीएस अधिकारी अंजना कृष्णा के बीच हुई तीखी बातचीत ने सत्ता और सिस्टम के रिश्ते पर नए सवाल खड़े कर दिए हैं। मुद्दा था कर्डु गांव (कर्माला उपखंड) में सड़क निर्माण के नाम पर चल रही कथित अवैध ‘मुर्रम’ खुदाई पर पुलिस-राजस्व की संयुक्त कार्रवाई।
क्या हुआ था 31 अगस्त को?
मामला 31 अगस्त 2025 का है। जानकारी के मुताबिक, 2022–23 बैच की आईपीएस अंजना कृष्णा, जो फिलहाल कर्माला में SDPO हैं, अपनी टीम के साथ अवैध मुर्रम उत्खनन के खिलाफ कार्रवाई के लिए मौके पर थीं। इसी दौरान उनके पास एक फोन आता है। शुरुआत में वे कॉलर की आवाज नहीं पहचानतीं और कहती हैं कि वे आधिकारिक नंबर पर ही बात करें। जब कॉलर अपनी पहचान बताता है—उपमुख्यमंत्री—तो अफसर फिर भी ‘ऑफिशियल चैनल’ से ही संवाद करने पर जोर देती हैं।
यहीं से विवाद गर्म होता है। वायरल वीडियो/कॉल रिकॉर्डिंग की जो बातें सामने आईं, उनमें पवार के कथित तौर पर कड़े लहजे में बोलने और ‘इस तरह बात कैसे करती हैं… चेहरा याद रहेगा’ जैसे शब्दों के इस्तेमाल का दावा किया गया। इसके बाद वीडियो कॉल पर भी बातचीत होने की बात आई, जिसमें कथित निर्देश दिया गया कि अवैध खनन पर तत्काल दंडात्मक कार्रवाई न की जाए और नगर राजस्व अधिकारी के साथ तालमेल बनाकर आगे बढ़ा जाए।
अंजना कृष्णा की भूमिका पर सवाल उठाना मुश्किल है, क्योंकि ‘मुर्रम’ भारतीय खनिज (विकास एवं विनियमन) अधिनियम, 1957 के तहत ‘माइनर मिनरल’ की श्रेणी में आता है। ऐसे मामलों में पुलिस और तहसील/राजस्व अमला मिलकर कार्रवाई करते हैं—चलान, जब्ती, और रिपोर्ट—सब कुछ दस्तावेजी प्रक्रिया से। अफसर ने उसी ‘ऑफिशियल प्रोसेस’ की ओर इशारा किया जिसकी कानून मांग करता है।
सियासी मोर्चे पर आग लग गई। शिवसेना (उद्धव) के संजय राउत ने इस वाकए को ईमानदार अफसरों को डराने-धमकाने की कोशिश बताया और कहा कि सत्ता में बैठे लोग अवैध कारोबार बचाने में लगे हैं। पार्टी के आनंद दुबे ने इसे महाराष्ट्र की कार्य संस्कृति पर धब्बा कहा और गृह मंत्री स्तर तक कार्रवाई की मांग रख दी।
विवाद परिवार के भीतर भी गूंजा। शरद पवार की बेटी और एनसीपी (एसपी) सांसद सुप्रिया सुले ने—बिना नाम लिए—इसे संविधान और विशेषकर लैंगिक समानता की मूल भावना पर चोट कहा। दूसरी तरफ एनसीपी (अजीत पवार गुट) के रोहित पवार ने यह संकेत दिए कि गठबंधन राजनीति के बीच जानबूझकर निशाना साधा जा रहा है।
स्वयं अजीत पवार ने माना कि कॉल उन्हीं का था, लेकिन मंशा ‘कानून-व्यवस्था में दखल’ की नहीं थी। पार्टी का कहना है कि उन्होंने पार्टी कार्यकर्ताओं को शांत कराने के लिए सख्त लहजे में बात की होगी, कार्रवाई रोकने का इरादा नहीं था। साथ ही यह भी जोड़ा गया कि तीन दिन पुराना क्लिप चुनकर वायरल किया गया, ताकि विवाद खड़ा हो।
अब तक किसी थाने में औपचारिक शिकायत दर्ज नहीं हुई है, न ही किसी विभागीय जांच की आधिकारिक घोषणा आई है। लेकिन मामला इतना बड़ा हो चुका है कि सरकार की चुप्पी खुद सवाल बनती जा रही है।
राजनीतिक बयानों की बौछार, आगे क्या
महाराष्ट्र की मौजूदा सत्ता संरचना जटिल है—मुख्यमंत्री एकनाथ शिंदे, उपमुख्यमंत्री देवेंद्र फडणवीस (जिनके पास गृह विभाग भी है) और उपमुख्यमंत्री अजीत पवार—तीनों पर नजरें हैं। विपक्ष का निशाना खासकर गृह विभाग पर है, क्योंकि पुलिस का प्रशासनिक नियंत्रण वहीं से चलता है। विपक्ष सीधा सवाल कर रहा—अगर वीडियो असली है तो गृह विभाग क्या करेगा? और अगर उसमें संदर्भ अधूरा है तो सरकार स्पष्ट तथ्य सामने क्यों नहीं रखती?
कानूनी प्रक्रिया साफ है—ऐसे विवादों में सरकार के पास कई विकल्प होते हैं:
- तथ्य-जांच के लिए DGP या प्रदेश इंटेलिजेंस से प्राथमिक रिपोर्ट मंगाना—कॉल डिटेल, वीडियो की फॉरेंसिक जांच, मौके की कार्यवाही का रिकॉर्ड।
- जिला स्तर पर राजस्व-पुलिस संयुक्त कार्रवाई के SOP का ऑडिट—कौन-कौन अधिकारी मौके पर थे, किसने क्या निर्देश लिखित में दिए।
- जरूरत पड़े तो विभागीय जांच—क्या किसी ने अपने अधिकारों का दुरुपयोग किया, या प्रक्रिया से हटकर निर्देश दिए।
- सार्वजनिक स्पष्टिकरण—ताकि अफवाहों और आधे-अधूरे क्लिप्स से बना नैरेटिव संतुलित हो सके।
इस केस की संवेदनशीलता दो वजहों से और बढ़ जाती है—पहला, इसमें एक महिला आईपीएस का जिक्र है, जिसे लेकर कार्यस्थल की गरिमा और सुरक्षा की बहस जुड़ जाती है; दूसरा, अवैध खनन जैसा अपराध जिसमें अक्सर स्थानीय दबाव, राजनीतिक रसूख और राजस्व नुकसान—तीनों एक साथ आते हैं।
बीते वर्षों में सुप्रीम कोर्ट ने ‘प्रकाश सिंह केस’ जैसी मिसालों में पुलिस की पेशेवर आजादी, ट्रांसफर-पोस्टिंग पर राजनीतिक दबाव कम करने और संचालनात्मक फैसले कानून के दायरे में लेने की बात दोहराई है। जमीनी हकीकत यह है कि जिला प्रशासन में पुलिस-राजस्व तालमेल के साथ-साथ जनप्रतिनिधियों का संवाद भी चलता है; लेकिन वह लिखित आदेशों और नियम-कायदे से ऊपर नहीं हो सकता।
वायरल क्लिप्स की दुनिया में संदर्भ खो जाना आसान है। दो मिनट का वीडियो कभी-कभी दो घंटे की जटिल कार्रवाई का बेहद छोटा हिस्सा होता है। इसलिए पारदर्शी जांच जरूरी है—कौन सा ट्रक कब रोका गया, किसके नाम पर पट्टे थे, किन धाराओं में जब्ती हुई, और क्या सचमुच फोन पर ‘कार्रवाई रोकने’ जैसा कोई आदेश दिया गया।
राजनीतिक संदर्भ भी समझना होगा। 2023 के बाद से राज्य की सत्ता में बीजेपी, शिवसेना (शिंदे) और एनसीपी (अजीत पवार गुट) एक साथ हैं। इस तिकड़ी में तालमेल बना रहे, यह सत्ता का लक्ष्य है; वहीं विपक्ष—शिवसेना (उद्धव) और एनसीपी (एसपी)—हर मौके पर असहजता दिखाने की कोशिश करता है। इस विवाद ने ठीक वही खिड़की खोल दी है—शासन बनाम सिस्टम, ताकत बनाम प्रक्रिया, और सियासत बनाम सेवा।
जमीनी असर? यदि पुलिस को फील्ड में यह संदेश जाता है कि फोन कॉल्स पर कार्रवाई रुक सकती है, तो इसका मनोबल पर असर पड़ता है। और अगर जनप्रतिनिधियों को लगता है कि कोई अफसर ‘सुनता’ नहीं, तो प्रशासनिक टकराव बढ़ता है। समाधान वही है—लिखित आदेश, संयुक्त निरीक्षण, और हर कार्रवाई का वीडियो-रिकॉर्ड, ताकि बाद में कोई भ्रम न रहे।
फिलहाल, विपक्ष प्रधानमंत्री, केंद्रीय गृह मंत्री और राज्य के गृह विभाग से संज्ञान की मांग कर रहा है। सरकार चाहे तो 72 घंटे के भीतर प्राथमिक रिपोर्ट सार्वजनिक कर सकती है—कॉल लॉग, जांच नोटिंग और मौके के पंचनामे के साथ। यह कदम दो फायदे देगा—पहला, जो हुआ, उसकी तथ्यात्मक तस्वीर साफ होगी; दूसरा, अफसरशाही और जनप्रतिनिधियों—दोनों के लिए लाल-पीली रेखाएं फिर से तय हो जाएंगी।
अवैध खनन पर एक नोट: महाराष्ट्र के कई जिलों में मुर्रम, रेत और गिट्टी की मांग लगातार बढ़ी है। सड़क और मकान निर्माण के बड़े प्रोजेक्ट्स के साथ यह दबाव और बढ़ता है। नियम साफ हैं—वैध पट्टा, सीमित मात्रा, रोयल्टी का भुगतान और पर्यावरणीय अनुमति। इन चार में से एक भी कड़ी टूटे, तो कार्रवाई तय है। ऐसे में ‘राजनीतिक सलाह’ और ‘प्रशासनिक निर्देश’ की रेखा धुंधली नहीं होनी चाहिए।
अब सभी की नजरें गृह विभाग की अगली चाल पर हैं। क्या सरकार वीडियो की फॉरेंसिक जांच का आदेश देगी? क्या जिले से तथ्यात्मक रिपोर्ट आएगी? या फिर मामला राजनीतिक बयानबाजी में ही अटका रहेगा? जवाब तय करेगा कि महाराष्ट्र में कानून का पहिया किस रफ्तार से चलेगा—और कितनी आजादी के साथ।
रिपोर्ट: आदित्य नमन